Wednesday, August 7, 2013

जब अपने बने लूटेरे…

जब अपने बने लूटेरे…

ग़रीब मजदूरों के मुंह से निवाले छीने जाते हैं
रक्त-मांस हीन अस्थि के ढाचे में भाले भोके जाते हैं

रोटी वसन लूट कर अब इनके सपने लूटे जाते हैं
दूर करके दिल के टुकड़े को, माँ की ममता लूटी जाती है

टूट चुके शरीर से निकलती कराह लूटे जाते हैं
अब तो बेजुबानो के इशारे लूटे जाते हैं

कफ़न चुराने वाले अब कब्र के पत्थर चुराते हैं
बेच कर मिट्टी को अब किसानों की जरूरत लूटी  जाती है

पड़ गई थी आदत जिन बेड़ियों की
अब वो बेड़ियाँ लूटी जाती है
रिश्ते- नातों को बोझ समझकर
अब बुजुर्गों की दुआएं लूटी जाती है !

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