Wednesday, February 26, 2014

कवि की व्यथा

जब भी सुनता हूँ
कवियों की कहानी
सबमें एक ख़ास बात होती है
सबने कुछ अलग जिया
किसी ने गरीबी देखी
किसी ने किस्मत की पहेली देखी
कहीं कोई गर्त से उठा
कोई रहा सड़क पे लेटा
गंगा किसी के जज़बात की उद्गार बनी
यमुना किसी के प्रेम की प्रमाण बनी
सबने नहीं तो अधिकों ने
अपने चंचल मन को
सुना कोयलों के कूँ में
उन आम के बगीचों में
गाँव के खुले मैदान में

तो मैं पूछता हूँ खुद से
अपने स्रोत से
मैं तो बीच में फंस गया!
न गरीबी की मार झेली
न अमीरी के मज़े लुटे
पला उस परिवार में
जहां सब कुछ यथेष्ट था
न कम न ज्यादा
न हीं नदी की निर्मल धार देखी
जो देखा वो छठ के अर्घ के लिए
गन्दा दामोदर देखा
जिसमें कहने पर डुबकी लगा भी लिए
तो फिर से नहाना जरूरी होता
न खुले मैदान थे
न आसमान को छूते पर्वत
थे तो बौने से पठारी पहाड़ियां
अधनंगे चट्टानों के टीले
जिनपे उगी थी बौनी झाड़ियां
छितरे बितरे से
और कोयले की खान
कोयले जैसी काली
धूल के गुबार हवाओं के साथ
दूर दूर तक फैलते
मगर अस्पष्ट विस्तार
धूल जो ठहरा
कब बैठ जाये और कब उड़ जाये
कोई ठिकाना न था
संक्षेप में कहूँ तो
वातावरण शुद्ध न था
जो भी पेड़ पौधे लोगों ने परिश्रम से उगाये थे
कोयले की चादर उनपे भी चढ़ी थी
आखिर परिवेश तो वही था 
तो फिर कोयल कहाँ से आते
काले आमों पे कैसे गाते?

तो फिर मैं क्या लिखूं ?
मन क्यूँ चाहता है?
कवि बनना!
अब कोयले की बखान करूँ ?
बौने पहाड़ों की शोभा गाऊँ ?
या उन धूल के गुबारों की दास्ताँ सुनाऊँ
जो बिना किसी कारवां के गुज़रे ही बन जाते?
कैसे और क्या  लिखूँ ?
क्या सुनाऊँ ?

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