Saturday, March 15, 2014

रात का सफ़र

यह रात कोई अलग न थी
मगर न जाने कहाँ से गाँव आया था
जहाँ कई बार छुट्टियों में गया था ।
- गाँव आया था सपने में
लेके सदायें उन हिस्सों की
जो मैंने छोड़ आये थे वहीँ आखिरी छुट्टी में
तो चल दिया मैं भी साथ फिर से
देखा 

खाट पे सोती रात
छत पे होती बात
आधे गिने तारों से साथ
दो छोटी उँगलियों का इशारा
चार आँखों में गहराता एक खोज
एक तारे समूह का कहीं खो जाना
मगर फिर होठों पे लहराती मुस्कान
एक गुमान
एक नए समूह की पहचान
चाँद के बगल से गुजरता चितकबरा बादल
एक घेरे से दूसरे घेरे में घुसता चाँद
दोनों दिमाग में एक सवाल
आखिर चाँद का क्या है मिज़ाज ?
एक दिमाग ढूँढता जवाब
दूसरा नए तारे गिनता चाँद के पीछे के तारे

और फिर हवा की आवाज़
रात्रि का पैगाम
ठंढ का एहसास
चादर की खिचान
आँख मूँद रात्रि का सम्मान

रात भर देखता रहा
दो मुस्कान
खुद को और भाई को

उठा सुबह
साथ लेके वही मुस्कान !

1 comment:

संजय भास्‍कर said...

सुन्दर भावपूर्ण प्रस्तुति...बहुत बहुत बधाई...