Thursday, March 27, 2014

कभी कभी ही सही

कभी कभी ही सही हमसे मिला करो
हमारी खबर न सही अपनी लिया करो !

कहाँ ढूंढते फिरते हो खुद को दौरे हरम में
शौक न हो भटकने का तो हमसे मिला करो !

हमारे सीने में है तुम्हारी बेचैन धड़कन
खुशबू की तरह ही सही साँसों में बसा करो !

चाँद को देखे गर आँखों में जलन होती हो 
आँख मूँद कर ही सही मगर पास रहा करो !

पूरे हुए गर जंगल पहाड़ तो मुड़ो इधर
जो तुम दरिया हो तो समंदर से मिला करो !

ऐसी भी बेरुखी अच्छी नहीं ज़माने के लिए
हमारी ज़िन्दगी न सही अपनी जिया करो !

गम की लकीर पड़ी है तक़दीर पर, मिट जायेगी
तुम अपने नर्म हथेलियों से कभी मिटाया करो !

राहों को भी अरसे से मंज़िल की तलाश है
तुम घर से निकल किसी ओर तो चला करो !

मायूस हैं सारे आफताब की दग़ाबाज़ी से
तफ्तीश ही सही अपनी पलके उठाया करो !

बेज़ार हैं फ़िज़ायें रुकी रुकी है हवा
अपने गेसुओं को खुले में बिखेरा करो !

1 comment:

संजय भास्‍कर said...

बहुत सुंदर और सार्थक प्रस्तुति जो दिल को छूती है.