Friday, June 27, 2014

संवाद खुद से

"तुम चाहते क्या हो ?"
मैं पूँछता हूँ मेरे दूसरे मैं से
जो हरदम पीछे से आवाज़ लगाता है
कभी कभार सामने आने का साहस भी कर लेता है

वो घबराते हुए कहता है
-"मुझे भी कभी तुम बनने दो!
जब खाली हो तब हीं
जब दुनियादारी से रिहा हो जाओ तब हीं
मैं भी कभी अपनी आँखों से खुद को देखूँ 
तुमने जैसा बताया है क्या मैं वैसा ही हूँ?
इस दुनिया के लायक नहीं?

क्या मेरी कल्पना बिल्कुल अलग है
इस दुनिया से
इसके लोगों से
इनकी रवायतें से
और वो तहज़ीब !

क्या मुझे दो घड़ी साँस लेने भर
की भी हवा नहीं मिलेगी
क्या लोग इतने मतलबी है?
मेरी संवेदना क्या सही में कोई नहीं सुनेगा
क्या लोग इतने व्यस्त हैं ?

मैं छूना चाहता हूँ
भावनाओं को असली में
देखना चाहता हूँ
ख़ाबों को हकीकत से
अपने होठों से कहना चाहता हूँ
जो मैंने लिखे हैं
अपने भावों को
मेरे शब्दों में "

मैं सुनता हूँ अक़्सर खुद को
मेरे दूसरे मैं को
बस सुनता हूँ
और समझता हूँ
उसे चोट पहुचाना नहीं चाहता
आशा, अपेक्षा बेहतर है वास्तविकता से !

No comments: