Tuesday, July 8, 2014

आखिर वो भी तो मेरी ही दुनिया है

इस असीम कायनात में
अपनी भी एक छोटी सी दुनिया है
कुछ लोग हैं जानने वाले
कई हैं पहचानने वाले
और ढेर सारे एहसास
बीते कुछ साँसों के साथ
चन्द गुथे हुए अफ़साने
एहसासों का दामन थामे
याद दिलाते हैं
फिर से जिलाते हैं
छूटी हुई मुस्कान
भूलें हुए आँसू
और कम पड़े अल्फाज

कुछ ख्वाहिशें भी है
हक़ीक़त से रूठ कर जो सोये हुए हैं
वक़्त बे वक़्त वो भी आवाज़ लगाते हैं
मन के उस कोने से
जहाँ कभी मैं रहा करता था
वहाँ दुनियादारी नहीं थी
कहीं कोई मजबूरी नहीं थी
वहाँ हँसते गुनगुनाते घुमा करता था
उड़ने की तैयारी करता था
कुछ सामान जुगाड़े थे
वो भी वहीँ है
उन ख्वाहिशों के साथ
वो भी कभी कभी बड़बड़ाते हैं

समय के साथ मैं समझदार हो गया
दुनिया की रवायतें सिखने लगा
उस कोने में जाना छोड़ दिया
उसका दरवाज़ा बंद कर आया था
मगर न जाने क्यूँ ताला नहीं लगाया
होगा कोई ख्याल डरा गया होगा
चाभी के खो जाने के बाद का कुछ हाल दिखा गया होगा

अरसा बीत गया था कोई दस्तक न हुई थी
मगर आज कल न जाने क्यूँ
कुछ हलचल बढ़ गयी है
लगता है भीतर के उस कमरे में हवा ख़त्म हो गयी है
फिर भी उस बंद दरवाजे को खोलने में डर लगता है
कई बार उसके बाहर ही रात भर सोता रहा हूँ
देखता हूँ कब तक भीतर के हाल से परे रख पाता हूँ खुद को
आखिर वो भी तो मेरी ही दुनिया है !

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