कितने किनारों को छोड़ बढ़ते रहे
ख़यालों में हम क्या क्या गढ़ते रहे
दूर होते होते नज़र से ओझल हुए
एक दूजे की गलतियाँ ही गिनते रहे
ज़माने को लगा ताल्लुकात है मगर
एक दुसरे से नज़र बचा के चलते रहे
बात होती तो कुछ बात बनती, यहाँ
खुद पे कभी तुम पे आरोप जड़ते रहे
बहार के मौसम फिर कहाँ आयें
तेरे बोये बीज पे तो पानी डालते रहे
वो शाख फिर कभी झुकी ही नहीं
हम लाख रस्सियाँ फेकते रहे
उन अंधेरों ने फिर बहुत सताया हमें
तेरी रोशनी में जिन्हे ललकारते रहे
ख़यालों में हम क्या क्या गढ़ते रहे
दूर होते होते नज़र से ओझल हुए
एक दूजे की गलतियाँ ही गिनते रहे
एक दुसरे से नज़र बचा के चलते रहे
बात होती तो कुछ बात बनती, यहाँ
खुद पे कभी तुम पे आरोप जड़ते रहे
बहार के मौसम फिर कहाँ आयें
तेरे बोये बीज पे तो पानी डालते रहे
वो शाख फिर कभी झुकी ही नहीं
हम लाख रस्सियाँ फेकते रहे
उन अंधेरों ने फिर बहुत सताया हमें
तेरी रोशनी में जिन्हे ललकारते रहे
1 comment:
सुंदर रचना.... आपकी लेखनी कि यही ख़ास बात है कि आप कि रचना बाँध लेती है
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