Thursday, December 11, 2014

कितने किनारों को छोड़ बढ़ते रहे

कितने किनारों को छोड़ बढ़ते रहे
ख़यालों में हम क्या क्या गढ़ते रहे

दूर होते होते नज़र से ओझल हुए
एक दूजे की गलतियाँ ही गिनते रहे

ज़माने को लगा ताल्लुकात है मगर
एक दुसरे से नज़र बचा के चलते रहे

बात होती तो कुछ बात बनती, यहाँ
खुद पे कभी तुम पे आरोप जड़ते रहे

बहार के मौसम फिर कहाँ आयें
तेरे बोये बीज पे तो पानी डालते रहे

वो शाख फिर कभी झुकी ही नहीं
हम लाख रस्सियाँ फेकते रहे

उन अंधेरों ने फिर बहुत सताया हमें
तेरी रोशनी में जिन्हे ललकारते रहे

1 comment:

संजय भास्‍कर said...

सुंदर रचना.... आपकी लेखनी कि यही ख़ास बात है कि आप कि रचना बाँध लेती है