Wednesday, December 17, 2014

सिकुड़ते हुए कमरे में मैं बड़ा हुए जाता हूँ

'Worn Out' painting by Vincent van Gogh
सिकुड़ते हुए कमरे में मैं बड़ा हुए जाता हूँ
ख़्यालों में अपने क्या से क्या हुए जाता हूँ

परछाईओं के रास्ते पे अपना बसर है होता
न चाह कर भी इनका हिस्सा हुए जाता हूँ

आई सबा लेकर नुस्खा राहत की मगर
ग़म की लत ऐसी कि परवाना हुए जाता हूँ

झूठा-झूठा चिल्लाकर सत्य खोज़ता फिरा
मगर  जहाँ से चला था वहीँ का हुए जाता हूँ

अपनी मस्ती में फिरता रहा नगर नगर
लगता है हर नगर से पराया हुए जाता हूँ

एक पेड़ की छाव अब भी है राह तकती मगर
जाता नहीं सोच कर कि अब बड़ा हुए जाता हूँ

सवारी को बादलों ने सीढ़ी गिरायें मगर देर से
उड़ने की जो ठानी तो परिन्दा हुए जाता हूँ

मेरे क़ातिल की महफ़िल यह सुन उदास हुई
कि ग़म से निज़ाद पा मैं फिर ज़िंदा हुए जाता हूँ

खोद सको तो मेरे हर ज़ख्म खोदो 'शादाब'
फिर देखो कैसे मैं खुद ही दवा हुए जाता हूँ!!

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